Sunday, June 9, 2019

मनोरोगी बनाम अपराधी




 वर्तमान परिदृश्य में बालिकाओं के साथ बढ़ते कुकृत्यों ने झकझोर दिया है सभी को | सामाजिक मीडिया पीआर जिस तरह से लोग अपने उद्गार व्यक्त कर रहे जैसे सज़ा देने का अधिकार सीधा फ़ेस बुकियों के पास ही रह गया है अब|

समाज की बेटियों के प्रति इस तरह का अपराध अक्षम्य है| परंतु इतिहास गवाह है की इस तरह के क्षणिक उबाल से उद्गार व्यक्त हो जाते हैं, भड़ास निकाल जाती है परंतु परिस्थितिया ज्यों की त्यों ही रहती हैं|

निर्भया हो या आसिफा बस किसी न किसी तरह से सुर्खियों में रहने के बाद शांत हो जाती हैं और कुरीतियाँ ज्यों की त्यों हैं | कोई तो कारण होगा ?

कानून से सब कुछ सुधरेगा ऐसा 130 करोड़ की आबादी वाले देश में असंभव है|

चिंतनीय ये बात भी है की अपराधी में धर्म मिल जाता है और उसके बाद बलियों और अलियों को मौका| मूलभूत प्रश्नों को उठाने वाले मिलते ही नहीं हैं और ये पत्रकार तो वही परोस रहे जो बिक जाये | मेरे अन्तर्मन में कुछ सवाल हैं और कुछ विकल्प भी |

1 हमें ये समझना होगा की ये अपराध है या मनोरोग? अपराधी है तो फांसी दो, जोकि देते ही आए हो परंतु कुछ बदला नहीं। न बदलेगा  कभी भी । अपराधी के साथ कभी अपराध का मूलल तत्व खत्म नहीं होता।

2 यदि ये मनोरोग है तो इनको जीवित रहने दिया जाये एवं इन मनोरोगियों पर शोध होना चाहिए । बिना मूल में गए रोग खत्म नही होगा ।

3 साथ ही साथ कानून को परिवर्तित करके इन अपराधियों को विशेष दर्जा देते हुए इंसान से बदल कर जानवर की श्रेणी दी जाए  ।

4 इनके लिए विशेष गृह चिड़ियाघर में बनाए जाएँ । इनके चिड़ियाघर में निर्मित घरों में अपराध प्रदर्शित होते हुए सभी को जानकारी मिले की इंका नव वर्गीकरण क्यूँ हुआ?

5 समाज ऐसी हालत देखकर कभी हिम्मत नही करेगा अपने को वर्गीकृत करवाने की।

6 वर्तमान कानून में वे न्यायाधीश भी दोषी हैं जिनहोने जानवरों को खुला छोड़ दिया जबकि वे इन्हे बांध सकते थे । महाभियोग तो उनके खिलाफ भी बन जाना चाहिए ।

कुकृत्यों को धार्मिक जामा पहना कर निकल जाना भविष्य के साथ किया गया भद्दा मज़ाक है और कुछ नही ।

नवीन संवेदनशीलता चाहिए।

आगे फिर कभी॥

सादर
अनुज

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